यह किताब चौधरी चरण सिंह द्वारा लिखी गई थी, जो उनके मृत्यु से एक वर्ष पहले १९८६ में प्रकाशित हुई थी। किंतु इसका हिंदी अनुवाद किसान ट्रस्ट द्वारा २००२ में प्रकाशित किया गया। यह पुस्तक चरण सिंह के कृषि और भूमि सुधार के प्रति समर्पण को दर्शाती है।
पुस्तक में सिंह पिछले तीन दशकों (१९३६-६६) के अपने अथक संघर्ष का वर्णन करते हैं। वे छोटे खेतों के समर्थक थे और जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के लिए लड़े। जमींदारों के कड़े विरोध के बावजूद उन्हें मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत का समर्थन प्राप्त था।
१९४६ में संसदीय सचिव और बाद में १९५२ में उत्तर प्रदेश (यूपी) में राजस्व मंत्री के रूप में, उन्होंने जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के आंदोलन का नेतृत्व किया। सिंह १९५१ के जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम (जेएएलआर) को अपना राजनीतिक जीवन की सबसे गौरवपूर्ण उपलब्धि मानते थे। इस अधिनियम के शोध, लेखन और कार्यान्वयन में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। जमींदारी व्यवस्था से जुड़े जटिल कानूनों का उनका बेजोड़ ज्ञान विरोधियों के हमलों को विफल करने में महत्वपूर्ण था।
जेएएलआर अधिनियम ने छोटे काश्तकारों को उस भूमि पर स्थायी और अविभाज्य अधिकार प्रदान किया, जिस पर वे खेती करते थे। इसके साथ ही १९५३ में सिंह द्वारा बनाए गए और पारित किए गए समेकित जोत अधिनियम के साथ मिलकर यह सुनिश्चित किया गया कि वे लोकतंत्र और उच्च कृषि उत्पादकता के आधार स्तंभ बनें। पुस्तक यह भी बताती है कि जमींदारों और उनके ग्रामीण सहयोगियों द्वारा उकसाए गए शहरी लालच, भ्रष्टाचार और कानूनी तोड़फोड़ के खिलाफ ग्रामीणों और दबे-कुचले लोगों के हितों की रक्षा के लिए इस कानून ने कितनी दूर तक काम किया।
सिंह के लेखन से भूमि सुधारों के बारे में काश्तकारों के दृष्टिकोण की उनकी गहरी समझ और भारतीय ग्रामीण परिवेश के मनोविज्ञान और लोकाचार की उनकी गहरी जानकारी का पता चलता है। सिंह का मानना था कि उनके समकालीन राजनेताओं, चाहे वे पूंजीवादी, समाजवादी या साम्यवादी हों, में यह सहानुभूति नहीं थी। बल्कि वे असली कुलक थे।