एक वर्ष के राष्टपति शासन के बाद तक उत्तर प्रदेश में फ़रवरी में मध्यावधि चुनाव शुरू हुए, जिसमें जन कांग्रेस के दौरान चरण सिंह की बी.के.डी. पार्टी के १७ विधायकों की संख्या बढ़कर ९८ हो गई। अधिकांशतः यह सीटें उनके संयुक्त दल के घटकों, विशेषकर जनसंघ की कीमत पर आई, जिसकी सीटें घटकर आधी अर्थात ९८ की तुलना में मात्र ४९ रह गई और साथ ही संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की सीटें भी ४४ से घटकर मात्र ३३ रह गईं। इससे भविष्य में, विशेष रूप से जनता दल के शासन में, उनके जनसंघ से जारी तनावों का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यह सब कुछ हुआ विना किसी संगठित धन व्यवस्था के अथवा बी.के.डी. में विना किसी नामधारी सांगठनिक ढांचे के चलते। और चरण सिंह की यही विशेषता उनकी बाद में बनने वाली सारी राजनैतिक पार्टियों के सम्बंध में विद्यमान रही। उन्होंने कभी भी धनी व्यापारियों अथवा उद्योगपतियों से धन की आकांक्षा नहीं की और सदैव जन सभाओं में इकठ्ठा होने वाले धन पर निर्भर रहे।
जनसंघ ने उनकी सत्ता-अस्तित्व सी शक्ति को हमेशा अपने राजनैतिक आधार के लिए खतरा महसूस किया और वे १९८५ तक सीमित सन्दर्भों में कभी उनके मुकाबले में तो कभी उनके सहयोगी रहे।