"ज्वाइंट फार्मिंग एक्स-रेड : समस्या और इसका समाधान" का प्रकाशन

१९५९

हमारे अर्थशास्त्रियों एवं योजनाकारों ने भारतीय परिस्थितियों का जायजा नहीं लिया क्योंकि वे कार्ल मार्क्स के सिद्धांत से प्रभावित थे और कार्ल मार्क्स ने विना इस तथ्य का परिक्षण किये कि जो नियम औद्योगिक विकास पर लागु हैं वही कृषि पर भी लागु हैं, अपने सिद्धांत को अंतिम हैं। भारत में जोतने योग्य भूमि सिमित हैं जबकि जनसँख्या का घनत्व अधिक। अतः प्रति हेक्टेयर उत्पादन में वृद्धि जरुरी है। अमेरिका, कनाड़ा, आस्ट्रेलिया और कई अन्य उन जैसे मुल्कों में जहाँ भूमि प्रचुर मात्र में एवं श्रमिक अल्प संख्या में उपलब्ध हैं, वहां बड़ी मशीनों के प्रयोग से खेती द्वारा प्रति व्यक्ति उत्पादन बढ़ता हैं।

पेट्रोल और डीजल के प्रयोग से विस्थापित मानव एवं पशु शक्ति का देश की अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता हैं। बेरोजगारी बढ़ेगी। हमारे देश की परिस्थितियों के मद्देनजर, बड़ी-बड़ी जोतों के कारन खेती से अलग हुए किसानों की भारी तादात को खपाने में औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्र अपर्याप्त होगा। अतएव सहकारी खेती को राष्ट्रीय निति का अंग मानने में महत्वपूर्ण मानवीय पक्ष की उपेक्षा निहित है। आयातित मशीनरी एवं गतिशील ऊर्जा का प्रयोग देश में उपलब्ध अपर्याप्त मुद्रा विनिमय पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

इसका अंदाजा नहीं लगाया गया कि बैल के स्थान पर ट्रेक्टर का प्रयोग करने से खेती के लिए गोबर खाद अत्यन्त काम हो जाएगी और फिर भरपाई के लिए रासायनिक खाद का प्रयोग बढ़ाना होगा। इस पुस्तक में समाहित साक्ष सिद्ध करेंगे कि अकार्बनिक खाद का प्रयोग तुरंत परिणाम तो देता है परन्तु धीरे-धीरे मिट्टी की उर्वरा-शक्ति का भी क्षरण करता हैं, दूसरी तरफ कार्बनिक खाद, भूमि की उर्वरा शक्ति बनाए रखने के साथ ही खाद्य पूर्ति के स्रोत के रूप में भूमि को अक्षुण्ण रखता हैं. अतएव कृषि की बेहतरी के लिए अब इस देश के कृषि विशेषज्ञ शुद्ध सिंथेटिक सलफेट्स एवं फास्फोरस का प्रयोग करने का परामर्श नहीं देते हैं। देश में जदबजी में किया गया उपक्रम ऐसा न हो की बाद में आज के नेताओं की निंदा का कारन बने।

संक्षेप में स्थापित लोकतंत्रिक सिद्धांतों को आहत करेगी, नौकरशाही का निमन्त्रण आमंत्रित होगा और दुष्परिणामों वाला मशीनीकरण तीव्र होगा। दूसरी तरफ खेती-किसानी देश के लिए एक ऐसा मार्ग प्रशस्त करेगी, जो शानदार भले न हो परन्तु उसमें अचानक पटरी से उखड़ने के अवसर भी नहीं आएगा।

वस्तुतः, हमारी समस्याएं लड़खड़ा देने वाली हैं। यदि हम उनका अनुमान लगाएं। हमारा सामना अत्यन्त पूंजीगत भरी अवरोध से हैं, जनसँख्या-वृद्धि के अनुपात में पूंजी निर्माण अत्यन्त कम अनुपात में है, बड़े पैमाने पर बेरोजगारी हैं, उससे भी अधिक अल्परोजगारी हैं, सापेक्षित रूप से अपर्याप्त भूमि एवं अन्य प्राकृतिक स्रोत हैं, अपर्याप्त कृषि उत्पादन हैं और एक ऐसी अधीर जनसँख्या हैं, जिसकी अपेक्षाएं जाग्रत हैं और जिसे आर्थिक असमानताओं एवं बढ़ती गरीबी का पूरा बोध हैं। इन समस्याओं से निपटने से लिए हमारी सारी ऊर्जा, कौशल, प्रशासन क्षमता और राजनैतिक क्षमताओं का उपयोग जरुरी होगा।

ऐसा कोई उदहारण प्रस्तुत नहीं हैं, जिसका अनुसरण भारत अपनी समस्याओं के समाधान में कर सके, क्योंकि किसी भी अन्य मुल्क की परिस्थितियॉ हमारे जैसी नहीं हैं। हम कभी अमेरिका के मानकों को नहीं अपना सकते क्योंकि प्रति व्यक्ति भौतिक स्रोत तुलनात्मक रूप से अत्यल्प हैं, या इंग्लैण्ड के मानक भी नहीं अपनाए जा सकते क्योंकि जैसा शोषण विदेशी स्रोतों और लोगों के बल पर करते हुए उन्होंने औद्योगिक ढांचा तैयार किया हैं, वैसा निर्माण हम नहीं कर सकते। यही नहीं, हम सोवियत रूस या चीन के तौर-तरीकों को भी नहीं अपना सकते हैं क्योंकि प्राकृतिक स्रोत-व्यक्तियों का अनुपात रूस के पक्ष में हैं तथा कुल मिलाकर लेन- देन का चिठ्ठा दोनों देशों के पक्ष में हैं और इसके अलावा इसलिए भी क्योंकि हमने लोकतजंत्रिक संविधान का रास्ता चुन है।

यह सोच कि अधिक जनसँख्या वृहत औद्योगीकरण के लिए अपने आप में एक पूंजी हैं, एक अल्पकालिक सोच हैं। जनसँख्या के अनुपात में प्राकृतिक स्रोत की कमी के सन्दर्भ में, हमारी काम क्रयशक्ति और यह मान लेना कि भौतिक स्रोतों से अंततः पूंजी या वित्तीय स्रोत का निर्माण कर लिया जायेगा, के बावजूद भारत की भारी जनसँख्या आर्थिक विकास या औदोगीकरन के रस्ते में अवरोध हैं, जिसमे उक्त सब कारक पूंजी निर्माण के न होकर 'दायित्व' वृद्धि के ही होंगे।

हालाँकि, उक्त सबके प्रति मात्र नकारात्मक रुख अख्तियार करना ठीक नहीं होगा। तदैव पुस्तक में इन बताऊँ पर सकारात्मक उत्तर देने का भी प्रयास किया हैं।

"नवीन खोजों को बढ़ावा देना या तकनीकी सुधार उतना ही आवश्यक हैं जितना पूंजी निर्माण। केवल तीन सौ वर्ष पूर्व, भारत आर्थिक स्टार के कम से कम स्तर, जिस पर पश्चिमी यूरोप था। आज स्थितियां काफी बदल चुकी हैं। पश्चिम वालों का नवीन खोजों को बढ़ावा देने की प्रवृति इसका कारण हैं। वहां पहुँचने के लिए निरक्षरता, अस्वस्थता, जातीय व्यवस्था और जीवन की भाग्यवादी धारणाओं, जिससे अधिकांश ग्रस्त हैं, जैसे अवरोधों को समाप्त करना होगा। तभी उपलब्ध पूँजी और श्रम दोनों की प्रभावोत्पादक दक्षता में सुधर होगा।

तकनीकी सुधार पर भी मुख्य बल देना होगा, उदाहरण के लिए स्वदेशी हल में, कार्बनिक खाद के उपयोग में, लघु सिंचाई कार्यों में और लघु उद्योगों एवं हस्तकला के संगठन में तकनीकी सुधार पर जोर जरुरी है न कि बड़े पैमाने पर महंगे यूरोपियन व अमेरिकी मॉडलों जैसे बड़े फार्म, बड़े कारखाने, बड़ी सिंचाई या पनबिजली परियोजनाओं पर कार्य किया जाये। इन बातों के आलावा, बड़ी आर्थिक परियोजनाएं परिणाम देने में काफी वक्त लेती हैं। पूंजी प्रवाह भी काफी समय के लिए रुक जाता हैं और इस बीच , समय की अंतरात्मा एवं जनसँख्या में वृद्धि के कारण समस्याएं कई गुना बढ़ जाती हैं तथा और अधिक प्रचण्ड रूप धारण कर लेती हैं।"

अन्यथा, यह बातें कहीं न कहीं वर्णित हैं, शायद इससे भी बेहतर रूप में। विचार और शब्दों दोनों में मैंने, डेविड मित्रांनी की पुस्तक 'मार्क्स अगेंस्ट द पीजेंट' (George Weidenfield and Nicolson Ltd., London, 1951), होरेस बेलशा की पुस्तक 'Population Growth and Levels of Consumption (George Allen and Unwin Ltd., London, 1956) Elmer Pendell’s Population on the Loose (New York, 1951) and Kingsley Davis’s Population of India and Pakistan (Princeton University Press, New York, 1951). से प्रेरणा प्राप्त की हैं। इन पुस्तकों के लेखकों का ऋणी हूँ एवं आभार प्रकट करता हूँ।"