Development of an Institutionalised Riot System in Meerut City, 1961 to 1982

३० अक्टूबर २००४
लिखित द्वारा
पॉल ब्रास

भारत में साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं का वर्णन अक्सर "स्वतःस्फूर्त" के रूप में किया जाता रहा है, लेकिन दक्षिण एशियाई राजनीति के विख्यात विद्वान और वाशिंगटन विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के पूर्व प्रोफेसर स्वर्गीय पॉल ब्रास इस धारणा को चुनौती देते हैं।  उनका तर्क है कि शहरी क्षेत्रों में होने वाले दंगे सुनियोजित कृत्य होते हैं, न कि आकस्मिक घटनाएँ। प्रोफेसर ब्रास ने "दंगा उत्पादन की संस्थागत प्रणालियों" का मॉडल विकसित कर यह रेखांकित किया कि ये दंगे "ऐतिहासिक वैमनस्य" का स्वाभाविक परिणाम नहीं हैं, बल्कि सुनियोजित तरीके से भड़काए जाते हैं।

उदाहरण के लिए, उन्होंने १९६१ के मेरठ दंगों का गहन अध्ययन किया और पाया कि पुलिस ने हिंदू उग्रवादियों को पूरी छूट दे दी थी, जिसके परिणामस्वरूप मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा अत्यधिक बढ़ गई। अपने शोध के आधार पर प्रोफेसर ब्रास दंगों में "भीड़ तत्व" पर प्रश्न उठाते हैं। उनका मानना है कि कुछ हिंदू समूहों द्वारा जानबूझकर मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में जुलूस निकालना और उन पर हमला करना, जबकि पुलिस निष्क्रिय बनी रहती थी, दंगों को भड़काने की सुनियोजित रणनीति थी। इस प्रकार के दंगा-उत्पादन का चुनावी परिणामों पर सीधा प्रभाव पड़ता था, जैसा कि १९६१ के बाद के चुनावों में कांग्रेस के कमज़ोर प्रदर्शन और जनसंघ के उदय से स्पष्ट होता है।  बताया जाता है कि तत्कालीन गृह मंत्री चरण सिंह ने भी स्वतंत्र सर्वेक्षणों के माध्यम से इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि जनसंघ की दंगा भड़काने में सीधी भूमिका थी।

१९८२ तक, दंगों का स्वरूप बदल गया था, क्योंकि जनसंघ ने मेरठ पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था और कांग्रेस केवल मुस्लिम वोट बैंक तक सीमित होकर रह गई थी। ब्रास बताते हैं कि विवाद के बीज या "मिनी-अयोध्या" हर जगह विद्यमान थे, लेकिन दंगों को भड़काने वाली तात्कालिक वजह लगभग हमेशा बाहरी कारक होते थे। ऐसा करने का उद्देश्य स्पष्ट प्रतीत होता है: चुनावी लाभ। उल्लेखनीय है कि 1982 तक इन दंगों के खिलाफ सरकार की तरफ से कोई ठोस कदम, जिसमें चरण सिंह की भी अहम भूमिका थी, लगभग समाप्त हो चुके थे। यह दंगों के हाशिये से मुख्यधारा में आने का स्पष्ट क्रम है, जहां अब सरकार के कुछ ही लोग इनके दुरुपयोग को रोकने के लिए तत्पर हैं। ये दंगे इन इलाकों में होने वाले अंतिम दंगे नहीं थे, और इतिहास एवं राजनीति विज्ञान के अध्येताओं के लिए यह शोधपत्र अत्यंत लाभकारी है, क्योंकि साम्प्रदायिक हिंसा की खबरें हमारे समाचार माध्यमों में लगातार बनी रहती हैं।

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2004-30-Oct EPW Paul Brass on RIots in Meerut 1961-1982.pdf 5.76 मेगा बाइट