जाति
"अगर आप मुझे इसलिए वोट देते हैं क्योंकि मैं जाट हूं, तो रहने दें - मुझे यह नहीं चाहिए!"
यह कथन चौधरी चरण सिंह हरियाणा और उत्तर प्रदेश के जाट बहुल क्षेत्रों में अपनी कई रैलियों में अक्सर कहा करते थे। इस वक्तव्य से सिद्ध होता है की सिंह जाती व्यवस्था का विरोध करते थे। जाति के प्रति उनका विरोध १९२७ में ही स्पष्ट हो गया था, जब वे मात्र २५ वर्ष के थे। उन्होंने जाट हाई स्कूल, बड़ौत और जाट डिग्री कॉलेज, लखौटी के प्रिंसिपल के पद को तब तक अस्वीकार करने का प्रण लिया था, जब तक कि इन संस्थानों के नाम से जाट शब्द न हटा दिया जाये।
आर्य समाजी और गांधीवादी प्रभाव
चौधरी चरण सिंह दयानंद सरस्वती और महात्मा गांधी की शिक्षाओं से बहुत प्रेरित थे। वह आर्य समाज के सिद्धांतों - खासकर यह कि जन्म से ऊँच-नीच की अवधारणा पर आधारित जाति व्यवस्था को खत्म किया जाना चाहिए- को मानते था। चरण सिंह का मानना था कि जाती के विभाजन को गुणों और योग्यता के विभाजन से बदलना चाहिए। स्वामी दयानंद की निर्वाण शताब्दी के अवसर पर एक भाषण में सिंह ने कहा, "(स्वामीजी) ने जाति व्यवस्था की कटु निंदा की, जिसमें अनगिनत वर्जनाएँ और विशेषाधिकार शामिल थे और निजी और सार्वजनिक जीवन में इसके कुप्रथाओं को उजागर किया। श्रेष्ठता के मानदंड के रूप में केवल योग्यता को स्वीकार करके, उन्होंने सामाजिक असमानता की समस्या को हल करने की कोशिश की, जो हमारे बार-बार राजनीतिक अधीनता का कारण रही थी"।
सामाजिक परिवर्तन और हरिजनों के उत्थान के संबंध में गांधी की दार्शनिक शिक्षाओं और जीवन प्रथाओं का चरण सिंह के विश्वदृष्टिकोण पर समान रूप से महत्वपूर्ण प्रभाव था। इस प्रकार, उनका दृढ़ विश्वास था कि जाति-मुक्त समाज की स्थापना की जानी चाहिए जिसमें सामाजिक और भौतिक प्रगति केवल योग्यता पर आधारित होगी। यह भी ध्यान देने योग्य है कि आगे चलके उन्होंने योग्यता की श्रेणी में भी असमानताएं दिखाई दी। १०-१२ अप्रैल १९८१ को नई दिल्ली में आयोजित लोकदल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में अपनाए गए बयान में कहा गया था कि योग्यता, प्रतिस्पर्धी चयन और समान अवसर के बारे में विचार और परीक्षण एक असमान समाज में अप्रासंगिक हैं। इसलिए, ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने के लिए विशेष अवसरों और आरक्षण के सिद्धांत को अपनाना अपरिहार्य है।
जाति उन्मूलन हेतु राजनीतिक हस्तक्षेप
चरण सिंह का मानना था कि छुआछूत की प्रथा और जाति व्यवस्था राष्ट्रीय एकता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा थी और सदियों से भारत की राजनीतिक अधीनता का एक प्रमुख कारण थी। उन्होंने तर्क दिया कि चूंकि जाति व्यवस्था जाति समूह के भीतर विवाहों के माध्यम से कायम रहती है, इसलिए मुख्य रूप से अंतरजातीय विवाहों के माध्यम से ही इस व्यवस्था को चुनौती दी जा सकती है। इसलिए उन्होंने 1954 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखते हुए यह प्रस्ताव पेश किया की केवल उन लोगों को विधानमंडल या राजपत्र सेवाओं में प्रवेश की अनुमति देनी चाहिए जिन्होंने अपनी जाति से बाहर विवाह किया है, या यदि वे अविवाहित हैं, तो ऐसा करने के लिए सहमत हैं। हालाँकि, यह सुझाव अमल में नहीं आ सका क्योंकि नेहरू का मानना था कि इस तरह का हस्तक्षेप व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मूल सिद्धांत के विरुद्ध होगा। नेहरू की असहमति के जवाब में सिंह ने लिखा कि इससे हस्तक्षेप नहीं माना जा सकता क्योंकि यह शारीरिक या शैक्षिक योग्यता निर्धारित करने के समान है। १९६७ में, जब वे संयुक्त विधायक दल के मंत्रिमंडल का नेतृत्व करते हुए उत्तर प्रदेश के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे, तो वे इसी तरह का एक कानून बनाना चाहते थे, लेकिन मंत्रिमंडल के अन्य लोगों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। इस अवधि के दौरान उन्होंने अपनी लंबे समय से चली आ रही मांग को लागू किया कि किसी भी जाति के नाम वाले शैक्षणिक संस्थान को सरकार द्वारा वित्तीय सहायता नहीं दी जानी चाहिए। इसका नतीजा यह हुआ कि ऐसी संस्थाओं ने तेजी से अपना नाम बदल लिया। उसी वर्ष उन्होंने राज्य लोक सेवा आयोग में अनुसूचित जातियों से कम से कम एक सदस्य की नियुक्ति की एक और लंबे समय से चली आ रही मांग को पूरा किया। इससे पहले भी, अनुसूचित जातियों के बेहतर प्रतिनिधित्व और जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए सिंह द्वारा विभिन्न क्षमताओं में कई पहल की गई थीं। १६ फरवरी, १९५१ को सिंह ने प्रदेश कांग्रेस कमेटी की कार्यकारिणी की बैठक में एक प्रस्ताव भी रखा था कि कांग्रेस के किसी भी ‘सक्रिय’ सदस्य को जाति संस्थाओं या संगठनों से जुड़ने की अनुमति नहीं दी जाये। १९५३ में उन्होंने उत्तर प्रदेश में १८,००० लेखपालों (जिन्होंने पटवारियों की जगह ली) की भर्ती में हरिजनों के लिए ३६% आरक्षण की मांग की। नवंबर १९५४ से मार्च १९५९ तक सिंह ने राजस्व बोर्ड से जिलों को कई आदेश जारी करवाए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कलेक्ट्रेट में चपरासी, लेखपालों और संग्रह अमीनों की सेवाओं में ऐससी संख्या १८% तक बढ़ायी जाए। दिसंबर १९६३ में उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि उनके अधीन आने वाले तीन विभागों - कृषि, पशुपालन और वन - में कक्षा IV सेवाओं में सभी भावी रिक्तियों को तब तक अनुसूचित जाती से भरा जाना चाहिए, जब तक कि इन सेवाओं में उनका अनुपात १८% तक न पहुंच जाए। इसके अलावा, सिंह की पार्टी - भारतीय क्रांति दल - के चुनाव घोषणापत्र में एक प्रावधान था जिसके तहत दोनों सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों की सभी फैक्ट्रियों में अकुशल नौकरियों के साथ-साथ सरकार द्वारा उपहार स्वरूप दिए जाने वाले परमिट और लाइसेंसों में २० प्रतिशत नौकरियां अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित होंगी, जिनमें तकनीकी कौशल की आवश्यकता नहीं होती है।
अनुसूचित जातियों की आर्थिक सुरक्षा के लिए कार्य
उत्तर प्रदेश का जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम निश्चित रूप से सिंह के राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी विधायी उपलब्धि थी। इस कानून के तहत, उन्होंने (भारी विरोध के बावजूद) छोटे और गरीब किसानों - जिन्हें राजस्व पत्रों में उप-किराएदार या अतिचारी के रूप में दर्ज किया गया था - को खेती के स्थायी अधिकार प्रदान कि। इन्हे नए कानून के तहत सामूहिक रूप से आदिवासी कहा जाता था। इस संशोधन से हरिजनों को बहुत लाभ हुआ क्योंकि लगभग २७.५ % आदिवासी अनुसूचित जातियों के थे। भूमिहीन मजदूरों को उस भूमि पर प्रवेश का पहला अधिकार था जिसे गाँव की भूमि प्रबंधन समिति खेती के लिए देना चाहती थी। नियमों के तहत यह भी प्रावधान किया गया था कि जबकि अन्य जाति के कृषि मजदूर भूमि प्रबंधन समिति द्वारा तय की गयी राशि के दस गुना किराया देने के लिए उत्तरदायी था, अनुसूचित जातियों को ऐसी कोई राशि देय नहीं थी। इसके अलावा एक प्रावधान यह भी किया गया कि जोतों की चकबंदी के समय, गांव में अनुसूचित जातियों और भूमिहीन की आबादी के विस्तार के लिए भूमि अलग रखी जाएगी।
पिछड़ी जातियों और उनके प्रतिनिधित्व के मुद्दों पर
जाति आधारित आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक अन्याय का मुकाबला करना और उसे दूर करना था। तभी सामाजिक रूप से वंचित समुदाय समान रूप से सामाजिक-आर्थिक प्रणाली के मुख्यधारा के विकास में भाग लेने में सक्षम होंगे। यह जाति और जाति आधारित व्यवसाय के बीच समवर्ती संबंध को तोड़ने में भी योगदान देता है। यह उन कई उदाहरणों में से एक है जो जाति और आरक्षण के सवाल पर चरण सिंह के विकसित होते रुख को पुष्ट करते हैं।
चरण सिंह को मध्यम सामाजिक स्थिति वाली पिछड़ी जातियों की आकांक्षाओं के प्रमुख प्रवक्ता के रूप में पहचाना जाने लगा। उन्होंने इन पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के समर्थन में भी एक मजबूत रुख अपनाया। वे उच्च जातियों द्वारा सार्वजनिक जीवन पर एकाधिकार से अच्छी तरह वाकिफ थे। प्रोफेसर पॉल आर ब्रास ने लिखा है, "(सिंह) कभी-कभी आंकड़े सुनाते थे कि विशेष सरकारी सेवाओं में ४५ से ५० प्रतिशत ब्राह्मण, बनिया, खत्री और कुलीन जातियों का वर्चस्व था, जबकि पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व नगण्य था, कुछ विभागों में यह एक प्रतिशत से भी कम था। वह बताते थे कि स्वतंत्रता के बाद से सरकारी सेवाओं में हरिजनों को दिए गए आरक्षण के कारण पिछड़े वर्गों की तुलना में उनका प्रतिनिधित्व कहीं बेहतर था। केंद्र और उत्तर भारत में १९७७ से १९७९ के बीच जनता शासन की अवधि के दौरान, चरण सिंह ने यूपी और बिहार की जनता सरकारों द्वारा पिछड़ी जातियों के लिए अपनाई गई आरक्षण नीतियों का समर्थन किया। हालांकि, उन्होंने पिछड़ी जातियों के लिए पदों के आनुपातिक प्रतिनिधित्व के लिए तर्क नहीं दिया, उनका मानना था कि यूपी सरकार द्वारा अपनाई गई पिछड़ी जातियों की भर्ती के लिए १५ प्रतिशत की आरक्षण नीति उचित थी।" वर्ष १९७९में जब चरण सिंह प्रधानमंत्री थे, हालांकि थोड़े समय के लिए, उनके मंत्रिमंडल ने केंद्रीय सेवाओं में पिछड़े वर्गों के लिए जाति के आधार पर आरक्षण लागू करने के लिए राष्ट्रपति संजीव रेड्डी को एक प्रस्ताव भेजा था। हालांकि यह प्रस्ताव लागू नहीं हो सका क्योंकि यह एक कार्यवाहक सरकार थी, लेकिन इस कदम ने एक बार फिर पिछड़े वर्गों के लिए न्याय की सिंह की खोज को साबित कर दिया।