१९८२ में प्रकाशित चरण सिंह की यह पुस्तक, भारत के विकास की दिशा पर उनके विचारों को प्रस्तुत करती है।पुस्तक में वे १९४७ की आज़ादी के बाद से भारत द्वारा अपनाए गए पूंजी-निर्भर, औद्योगिक और शहर-केंद्रित विकास के रास्ते की कड़ी आलोचना करते हैं। सिंह हमेशा की तरह, गंभीर आंकड़ों के साथ भारत में बढ़ती गरीबी, कुपोषण, बेरोजगारी, कर्ज़ और आय असमानता की भयावह स्थिति का चित्रण करते हैं। वे चेताते हैं कि जब तक राष्ट्रीय प्राथमिकताएं बदलकर ग्रामीण भारत के विशाल जनसंख्या को संबोधित नहीं किया जाता, तब तक देश का भविष्य अंधकारमय ही रहेगा।
चरण सिंह भारत की भूमि व्यवस्था, कृषि की उपेक्षा, किसानों के शोषण और गांवों की बदहाली का वर्णन करते हैं। वे बताते हैं कि किस तरह शहरी अभिजात वर्ग की प्राथमिकताओं ने गांवों को दरकिनार कर दिया है। पुस्तक में वे गांधी और नेहरू द्वारा परिकल्पित विकास के विरोधाभासी स्वरूपों की तुलना करते हैं, और बताते हैं कि कैसे तथाकथित ‘समाजवादी’ सोच ने अकुशल सार्वजनिक क्षेत्र सहित कई समस्याओं को जन्म दिया। वे कुछ चुनिंदा व्यापारिक परिवारों के हाथों में आर्थिक शक्ति के केंद्रीकरण, बढ़ती आय असमानता और बेरोजगारी की भी निंदा करते हैं।
चरण सिंह पूंजीवाद या साम्यवाद के मॉडल को खारिज करते हुए राष्ट्रव्यापी स्वरोजगार को अपनाने की वकालत करते हैं। उनका मानना है कि यही आत्मनिर्भर और लोकतांत्रिक राष्ट्र का आधार है। वे नेहरूवादी दृष्टिकोण को गांधीवादी दृष्टिकोण से बदलने का सुझाव देते हैं, जिसका फोकस गांव, कृषि और ग्रामीण रोजगार पर हो। वे जीडीपी वृद्धि से अधिक रोजगार सृजन को प्राथमिकता देने, श्रम-प्रधान उद्योगों को बढ़ावा देने, छोटे किसानों की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और कृषि में श्रम को कम करने वाले मशीनीकरण से बचने की बात करते हैं। साथ ही, ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा, चिकित्सा सुविधाएं, स्वच्छता और नागरिक सुविधाओं के लिए सामाजिक और आर्थिक बुनियादी ढांचे में निवेश बढ़ाने का समर्थन करते हैं ताकि शहरों की झुग्गियों में पलायन को कम किया जा सके।