चौधरी चरण सिंह ने सन् १९३५ से किसानो और समाज के गरीब वर्गो की आर्थिक उन्नति के लिए गंभीरता के साथ सोचना और लिखना आरम्भ कर दिया था। सहकारी खेती, ज़मींदारी उन्मलन, कर्ज़ा विमुक्ति, अंतर्जातीय विवाह, आदि अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों पर चरण सिंह जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं से भी तकर लेते रहे।
१९४० के दशक से लेकर १९८४ तक के अपने लेखन में, सिंह ने किसानों की संतानों के लिए आरक्षण के पक्ष में तर्क दिया।
१९३1 की जनगणना के अनुसार कृषि से जुड़े हुए लोग, चाहे वे भूमि के मालिक हो अथवा किसान मज़दूर हो, कुल जनसँख्या का ७५ फीसदी थे । लेकिन जनसँख्या का इतना बड़ा भाग होने के बाद भी सैनिक सेवाओं के अतिरिक्त अन्य किसी सरकारी नौकरी में इस वर्ग का प्रतिनिधित्व देखने को नहीं मिला। हमारे देश में सरकारी सेवाओं में अधिकांश प्रतिनिधित्व शहरी वर्ग का रहा है , जिनकी विचारधारा देहात के किसान समाज से बिलकुल विपरीत होती है। इस प्रकार का शहरी वर्ग किसानो को केवल खेत जोतने और खाद्य उत्पादन के योग्य समझता है, और सरकार को राजस्व देने का माध्यम समझता है।
अपने तर्क को पुनः प्रमाणित करने हेतु चरण सिंह 'ब्रिटिश लीगल जर्नल' के एक लेख में आये उदारहरण का प्रयोग करते हैं। न्यायपालिका का उदाहरण लेते हुए, वे तर्क देते हैं कि शहरी पृष्ठभूमि से आने वाले न्यायाधीश खेती में आने वाली समस्याओं को समझने में अयोग्य होंगे, खासकर जब वे खेती से संबंधित मामलों की सुनवाई कर रहे हों।
अपने १९४८ के लेख में प्रस्तुत तर्कों के समान, सिंह एक बार फिर इस १९८४ के लेख में कृषि विभाग की अकुशलता को उजागर करते हैं क्योंकि विभाग के अधिकारी रबी और खरीफ फसलों के बीच अंतर करने में भी असमर्थ हैं।
उनका जीवन भर यह मानना था कि केवल किसानों की संतान ही कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं को सही मायने में समझ सकते हैं। इसलिए आरक्षण के माध्यम से सार्वजनिक सेवाओं में उनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाना चाहिए।