जातीयता का अभिशाप और चौधरी चरण सिंह

१९९८, किसान ट्रस्ट
लेखक
नाथन सिंह
अंतिम प्रकाशन

पुस्तक में लेखक नाथन सिंह विभिन्न युगों में प्रचलित जाति व्यवस्था के अभिशाप से चिंतित हैं। वैदिक काल से लेकर मध्यकाल और सत्रहवीं शताब्दी तक, सिंह जातीय संकीर्णता का ऐतिहासिक संदर्भ का लेखन करते हैं। इस पृष्ठभूमि में, वह चौधरी चरण सिंह के जीवन, राजनीति और नीतियों पर टिप्पणी करते हुए उनके अंतर्मन में उदित जाति विरोधी भावना पर प्रकाश डालते हैं। ऐसा करते हुए, वह मुख्य रूप से चरण सिंह के समय के राजनीतिक संदर्भ और राजनीतिज्ञों द्वारा लगाए गए जातिवादी आरोप पर सिंह की प्रतिक्रिया पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

चरण सिंह का मानना था कि ब्राह्मणों की जातीय श्रेष्ठता की भावना, साहूकारों के आर्थिक शोषण और सामंतों की विलासिता के कारण ही हिंदुओं ने अन्य धर्मों, विशेषकर इस्लाम और सिख धर्म को अपनाया। सन् 1881 तक पंजाब का क्षेत्र भी हिंदू बहुल था, लेकिन आधी सदी के समय में वह मुस्लिम बहुल हो गया। कारण सिर्फ यह था कि इस्लाम ने उन्हें गले लगाया, स्वर्ण हिंदुओं ने उनका शोषण किया। 1881 तथा 1931 की जनगणना इसका प्रमाण है। यही हाल बंगाल का भी था। इसी कारण भारत का उत्तर और पूर्व का क्षेत्र सांप्रदायिक जुनून का शिकार हो गया। चौधरी साहब ने यह भी जान लिया था की इस बर्बादी और संहार को रोकने के लिए केवल आर्थिक आधार पर, हिंदू तथा मुस्लिम किसानों को, एक मंच पर लाने का कार्य यूनियनिस्ट पार्टी के झंडे तले फजल ए हुसैन, चौधरी छोटू राम, सिकंदर हयात खां, आदि ने किया था। कांग्रेस और सांप्रदायिक मुस्लिम लीग को, किसान समर्थक इन नेताओं ने आर्थिक आधार पर चुनौती दी जिसके परिणामस्वरूप आम चुनाव में कांग्रेस तथा लीग को काफी कम सीटें मिली। इसने सिद्ध कर दिया था कि धर्म, जाति और संप्रदाय की अपेक्षा आर्थिक समृद्धि की संभावना में जनता को जोड़ने की ताकत होती है। चरण सिंह यह भी जान चुके थे कि छोटी तथा अस्पृश्य कही जाने वाली जातियों का आर्थिक विकास नहीं हुआ तो वह विद्रोही हो सकती हैं और बड़ी से बड़ी ताकत को धूल भी चटा सकती हैं।

साल 1954 में सिंह ने प्रधान मंत्री नेहरू को एक पत्र लिखा जिसमे उन्होंने कहा, "हमारी समस्त दुर्बलताएं जो आर्थिक तथा भाषा जनित विषमताओं एवं हमारी वर्ण व्यवस्था के कारण है, मेरी राय में हमारी राजनैतिक पराधीनता और पतन के लिए उत्तरदाई है। जाति की भावना काम होने के अपेक्षा बढ़ती ही जा रही है, जिसका प्रशासकीय सेवाओं पर भी काफी असर पड़ा है।" सिंह ने जातिगत असमानता को मिटाने के लिए अंतर्जातीय विवाह पर बल दिया। उन्होंने सुझाव दिया कि प्रशासनिक सेवाओं में अंतर्जातीय विवाह करने वालों को प्राथमिकता दी जाए

यही सुझाव उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री गोविंद बल्लभ पंत को भी सन् 1953 में दिया था। परंतु नेहरू की तरह पंत ने भी इस सुझाव पे कोई उत्साह नहीं दिखाया। नेहरू जी ने इस सुझाव को व्यक्तिगत स्वाधीनता के लिए खतरा मान कर अस्वीकार किया था। इस उदासीनता का परिणाम यह हुआ कि सरकारी कार्यालय, मंत्रिपरिषद और व्यवसायिक संस्थान संकीर्ण जातीयता के अड्डे बन गए, वहां गैर जाति के योग्य व्यक्तियों का प्रवेश बंद हो गया।

क्योंकि चौधरी साहब का जन्म गरीब परिवार में हुआ था, तो वे देश की गरीबी, उसके कारण और समाधान के रास्तों के पूरी तरह अवगत थे। इसका प्रदर्शन उन्होंने उत्तर प्रदेश के मंत्री के रूप में किसानों को अपनी जोत की भूमि का मालिक बनाकर किया। चौधरी साहब ने आचरण और कार्य के स्तर पर जातीय संकृंता का विरोध किया। उन्होंने जमींदारी उन्मूलन भूमि सुधार अधिनियम के अंतर्गत अधिवासियो को भूमि अधिकार दिया। उनके द्वारा कराए गए संशोधन से हरिजनों को अत्यधिक लाभ हुआ।

कांग्रेस में होते हुआ भी उन्होंने कई कांग्रेसी नीतियों का विरोध किया। कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में उन्होंने नेहरू के सहकारी खेती के प्रस्ताव का विरोध किया क्योंकि उनकी ये धारणा थी कि सहकारिता की अनिवार्यता से व्यक्तिगत रुचि और स्पर्धा का अभाव हो जाएगा जिसका खाद्यान्न के उत्पादन पर प्रभाव पड़ेगा।

इंदिरा गांधी का जातीयता का आरोप

श्रीमती गांधी ने सन 1980 में एक साक्षात्कार में चरण सिंह पर जातिवादी होने का आरोप लगाया था। उनहोंने कहा था कि "चौधरी चरण सिंह द्वारा मंत्री मंडल में महत्वपूर्ण पद पर आने के बाद ही राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र में जातीयता अत्यंत महत्वपूर्ण हुई"। चौधरी साहब ने इंदिरा गांधी को चुनौती देते हुए कहा कि वह केंद्रीय मंत्री के रूप में लिए गए एक भी ऐसे निर्णय का उदाहरण नहीं दे सकती जिसकी वजह से जातीयता को बढ़ावा मिला हो।

श्रीमती गांधी ने केवल चरण सिंह पर ही सांप्रदायिकता और जातीयता का आरोप क्यों लगाया। लेखक नाथन सिंह इसका सीधा सा उत्तर यह देते हैं कि जयप्रकाश नारायण के बाद चौधरी साहब ही उनको एक मात्र ऐसे लोकप्रिय नेता नजर आते थे जिसके कुछ नैतिक, सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन मूल्य थे और जिनका व्यापक जनाधार था। वह यह भी जानती थी कि 1977 के लोक सभा चुनाव में जनता पार्टी की ओर से चौधरी साहब ही उत्तर भारत के चुनाव प्रचार के लिए उत्तरदाई थे और यार उनके प्रचार का ही परिणाम था कि कांग्रेस को केवल राजस्थान से एक सीट मिली थी। नाथन सिंह का कहना है कि इंदिरा गांधी को अपने सत्ता के लिए सबसे बड़ा खतरा चौधरी साहब ही नजर आते थे। इस आरोप का उत्तर देते हुए "जातिवाद कौन: एक विश्लेषण" में कहा गया कि "पूरे देश में दो चार ऐसी जातियां हैं जो कुल मिलाकर एकाधिकारपूर्वक देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, प्रशासनिक और शैक्षणिक सत्ता का उपभोग करती हैं और ब्राह्मण समुदाय इस सत्ता में सर्वाधिक हिस्सा पता है"। अपनी जाति के व्यक्तियों को चौधरी साहब ने ऊंचे पढ़ो पे कभी नहीं बैठाया बल्कि यह काम श्रीमती गांधी के पारिवारिक शासन के दौरान हुआ था।

लेखक नाथन सिंह नेशनल हेराल्ड तथा प्रोफेसर पॉल आर ब्रास का हवाला देते हुए कहते हैं कि चौधरी चरण सिंह को कांग्रेस प्रधान राजनीति में वह स्थान नहीं मिल पाया जिसके वह हकदार थे।

नाथन सिंह अंत में कहते हैं कि अपने घर में सिंह ने भोजन बनाने वाला तथाकथित शुद्र जाति का व्यक्ति रखा, अपनी बेटियों का अंतरजातीय विवाह किया, उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री के रूप में एक ईमानदार एवं योग्य व्यक्ति को पुलिस का आला अफसर बनाया, गुज्जर जाति के योग्य व्यक्ति के लोक सेवा आयोग का अध्यक्ष बनाया, भारत सरकार के गृह मंत्री के रूप में योग्य और ईमानदार व्यक्ति को दिल्ली का पुलिस कमिश्नर बनाना और अपनी जाति के किसी व्यक्ति को किसी ऊंचे पद पर आसीन न करना, उनकी जातिवादी संकीर्णता से दूरी का परिचायक तो है ही, प्रमाण भी है। दूसरी ओर, अन्य लोगों ने राज्यपाल तथा राजदूतों की नियुक्ति करते समय जातीय संकीर्णता का त्याग नहीं किया। नाथन सिंह कहते हैं कि इससे स्पष्ट होता है कि चौधरी साहब पर जातिवादी होने का आरोप लगाने वालो के हाथ जातिवाद के रंग में कितना रंगे थे।

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