चरण सिंह द्वारा लिखित पुस्तकें

चरण सिंह द्वारा प्रकाशित पुस्तकें

पुस्तकें

  1. शिष्टाचार, १९४१.२०१ पृष्ठ ।
  2. एबोलिशन ऑफ जमींदारी, टू अल्टरनेटिव्स १९४७, किताबिस्तान इलाहाबाद ।२६३ पृष्ठ ।
  3. ज्वाइंट फॉर्मिंग एक्स–रेड: द प्रोब्लम एंड इट्स सॉल्यूशन १९५९, भारतीय विद्या भवन, बॉम्बे । ३२२ पृष्ठ ।(बाद में १९६४ में एक नए संस्करण में “इंडियाज पावर्टी एंड इट्स सोल्यूशन ” नाम से प्रकाशित, नीचे देखें)
  4. इंडियाज पावर्टी एंड इट्स सॉल्यूशन १९६४, एशिया पब्लिशिंग हाउस, नेशनल पब्लिशिंग। ५२७ पृष्ठ। (यह उनकी पुस्तक “ज्वाइंट फार्मिंग एक्स-रेड” का दूसरा संशोधित संस्करण है, जो मूल रूप से १९५९ में प्रकाशित हुई थी, ऊपर देखें)
  5. इंडियाज इकनॉमिक पॉलिसी– द गांधियन ब्लूप्रिंट १९७८, विकास पब्लिशिंग हाउस, दिल्ल। १२७ पृष्ठ।
  6. इकोनॉमिक नाइटमेयर ऑफ इंडिया– इट्स कॉज एंड क्योर १९८१, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली। ५९८ पृष्ठ। 

अन्य

  1. हाउ टू एबोलिश जमींदारी: विच अल्टरनेटिव सिस्टम तो एडॉप्ट, १९४७। इलाहाबाद: सुपरीडेंट प्रिंटिंग एंड स्टेशनरी, यूनाइटेड प्रोविंस।
  2. रिपोर्ट ऑफ द यूनाइटेड प्रोविंसेज जमींदारी एबोलीशन कमिटी। १९४८। सुपरिटेंडेंट, प्रिंटिंग एंड स्टेशनरी, इलाहाबाद, यूपी। ६११पृष्ठ।
  3. एबोलिशन ऑफ जमींदारी इन यूपी । क्रिटिक्स आंसर्ड १९४९। इलाहाबाद: सुपरिडेंट, प्रिंटिंग और स्टेशनरी , संयुक्त प्रांत, भारत। मूल रूप से इसी शीर्षक के साथ, १६ अगस्त १९४९ को नेशनल हेराल्ड, लखनऊ में प्रकाशित; 'क्रिटिक्स आंसर्ड' के रूप में पुनर्मुद्रित, १९८६।
  4. व्हिथर कॉपरेटिव फॉर्मिंग? १९५६। इलाहाबाद: सुपरिटेंडेंट, प्रिंटिंग एंड स्टेशनरी, उत्तर प्रदेश, भारत ।
  5. अग्रेरियन रिवोल्यूशन इन उत्तर प्रदेश। १९५८, प्रकाशन शाखा, सूचना विभाग, उत्तर प्रदेश सरकार। १९५८ लखनऊ, सुपरिटेंडेंट, प्रिंटिंग एंड स्टेशनरी। ६६ पृष्ठ ।
  6. द स्टोरी ऑफ न्यू कांग्रेस–बीकेडी रिलेशन: हाउ न्यू कोंग्रेस ब्रोक द यूपी कोलिशन, १९७०। लखनऊ: बीकेडी।
  7. उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार और कुलक वर्ग। किसान ट्रस्ट । २००२।

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चरण सिंह बेहद अध्ययनशील नेता एवं लेखक थे। वह सबसे ज्यादा प्रफुल्ल उन क्षणों में होते थे, जब वे अपना कोई प्रबंध लिखने की तैयारी करते थे और पार्टी के घोषणा-पत्रों, राजनीतिक अभियान पत्रों, पुस्तकों, भाषणों और मीडिया के लिए लेखों, पत्रों, शासकीय टिप्पणियों को तर्क संगत बनाने में अनेकोँ आंकड़ों का अम्बार जुटाते थे। उनके अध्ययन का विस्तार भारतीय इतिहास, कृषि, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र एवं धर्म के अलावा वैश्विक स्तर (विशेष रूप से ब्रिटिश, रूसी, यूरोपियन, चाइनीज़) पर था। अपने लेखन में उन्होंने उपयुक्त औद्योगीकरण के लाभों की उपेक्षा न करते हुए विकास की भारतीय विचारधारा में गांव और कृषि-जीवन के महत्व की केन्द्रीयता पर अधिक बल दिया। अंग्रेजी उपनिवेशवाद से देश को छुटकारा दिलाने में समर्पित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दूसरे नेताओं की तरह उनका भी अटूट विश्वास था कि भारत का पुन:उदय होगा और अंग्रेजी शासन द्वारा खेतिहरों एवं दस्तकारों के सन्दर्भ में जो अन्यायपूर्ण नीतियां अपनाई गयी हैं (जमींदारीप्रथा को बढ़ावा देना तथा ब्रिटेन में औद्योगिक उत्पादन को समर्थन देना), उनका खात्मा होगा; विकास के केन्द्र, शहरी, ब्रिटिश एवं भारतीय अभिजात्य वर्ग से हट कर, गांव बनेंगे जहाँ भारत का आम जन निवास करता है। १९५० के आरम्भ में जब उन्हें यह भान हुआ कि ऐसा नहीं होगा, तब उन्होंने भारतीय राजस्व और कृषि व्यवस्था सम्बन्धी अपना सारा ज्ञान ग्राम्य जीवन और राष्ट्रीयता के उच्च नैतिक चरित्र में सुधार लाने में लगा दिया; यह संघर्ष उनका अकेले का जीवनभर का राजनैतिक संघर्ष सिद्ध हुआ। उनका समस्त लेखन अपने समय के शहरी एवं शिक्षित तबकों के खिलाफ एक ऐसा संघर्ष रहा, जो उन्होंने अख़बारों, किताबों और चुनावी-मैदानों में पूरे मनोयोग से लड़ा।

उनकी अध्ययनशीलता की गहराई और विस्तार उनके द्वारा लिखित किसी भी पुस्तक की सन्दर्भ ग्रंथ सूची में भलीभांति झलकती है (उनकी पहली पुस्तक "एबोलिशन ऑफ़ जमींदारी" (१९४७ ) की ग्रन्थ सन्दर्भ सूची को देखने के लिए यहाँ क्लिक करें) . मुझे लगता है कि उनका पांडित्य उस समय को प्रतिबिम्बित करता है, जब प्रत्येक राष्ट्रवादी की मानसिकता उर्वर थी और अध्ययन को अंग्रेजों से लड़ने के जरिये के रूप में जाना जाता था । उदाहरण के लिए १९३८ में प्रकाशित एडगर स्नो की "रेड स्टार ओवर चाइना" पुस्तक को उन्होंने १९४२ में ही बरेली जेल में पढ़ लिया था परन्तु चरण सिंह के पांडित्य का अधिक श्रेय उनकी बुद्धिमत्ता और उनके विचारों की गहराई को जाता है, जबकि वे अशिक्षित खेतिहरों की संतान थे और उन्होंने स्कूली शिक्षा गांव की पाठशाला में तथा विद्यालयी शिक्षा आगरा में पूर्ण की, जो अभिजात्य भारतीयों की पहुँच में रहे कैम्ब्रिज और ऑक्सफ़ोर्ड से काफी दूर था। उनका नजरिया हमेशा भारतीय वास्तविकताओं पर टिका होता था और तर्क- सुव्यवस्थित रूप से- वैश्विक ज्ञान पर आधारित होते थे।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और दीगर राजनीतिक दलों, जिनमें वह रहे, उनमें उनके अधिकांश राजनैतिक सहयोगियों का पठन-पाठन और लेखन से बहुत कम लेना-देना था, क्योंकि वे दलगत राजनीति एवं धन-अर्जन में ही व्यस्त रहते थे। कुछ होनहार कनिष्ठ एवं युवा नेता, जो उनके विशाल अनुयायियों का एक छोटा सा भाग थे, उनके वैश्विक ज्ञान और भारतीय यथार्थ पर गहरी पकड़ से पूर्णतया वाकिफ और इत्तिफाक रखते थे। अक्सर वे एक स्कूली शिक्षक की भांति अपने राजनैतिक श्रोताओं के समक्ष पूरी दृढ़ता और बेबाकी से अपने विचार रखते थे और उनके ग्रामीण श्रोता उन्हें इस प्रकार ध्यानमग्न और चुपचाप सुनते थे जैसे की वह उनके ज्ञानपूर्ण तर्कों को पूरी तरह आत्मसात कर रहे हों।

वे शिक्षाविदों से भी जुड़े थे (जैसे यूनिवर्सिटी ऑफ़ वाशिंगटन के प्रो० पॉल आर० ब्रास और दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स के प्रो० जे. डी. सेठी ), ताकि वे अपनी आर्थिक एवं सामाजिक धारणाओं की धार तेज कर सकें। उलट-पुलट से भरी और अस्थिर प्रतिनिधित्व वाली संसदीय राजनीति के बीच उन्होंने तीव्र बौद्धिक धारणाओं के लिए कैसे समय निकला, इसका श्रेय निःसन्देह उनकी क्षमताओं को ही है।

हम पहली बार उनके समस्त लेखन को, निःशुल्क डाउनलोड करने की सुविधा सहित, आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं।

हर्ष सिंह लोहित

1948, Superintendent, Printing & Stationary, UP. India
1948, Superintendent, Printing & Stationary, UP. India
१९५४, किसान ट्रस्ट द्वारा फिर से प्रकाशित
1956, Allahabad: Superintendent, Printing and Stationery, United Provinces, India
1957, Prakashan Shakha, Soochna Vibhag, Government of Uttar Pradesh
1964, Asia Publishing House, National Publishing
१९७७, राधा कृष्ण, नई दिल्ली